नीतिशास्त्र क्या है ?(What is Ethics?) - Moral Education 1st Unit

 नीतिशास्त्र क्या है ?(What is Ethics?)

नीतिशास्त्र (Ethics) ग्रीक शब्द (Ethica) से व्युत्पन्न है, जिसका शाब्दिक अर्थ रीति-रिवाज होता है।Ethica शब्द की व्युत्पत्ति Ethos शब्द से हुई है, जो Ethica के ही समान रीति-रिवाज के अर्थ में प्रयुक्त होता है। नीतिशास्त्र (Ethics) को नैतिक चिंतन (Moral philosophy) भी कहा जाता है। Moral शब्द Mores से व्युत्पन्न है, इसका भी शाब्दिक अर्थ रीति-रिवाज या लोक-व्यवहार है।
 

नीतिशास्त्र (Ethics) अध्ययन की वह विधा है जो किसी भी मानव समाज के लोक व्यवहार या रीति-रिवाज का अध्ययन करती है। समाज के रीति-रिवाज या लोक-व्यवहार प्रायः सामाजिक परंपराओं पर निर्भर होते हैं  इसीलिए हयूमन जैसे दार्शनिक नीतिशास्त्र को सामाजिक परंपराओं के अध्ययन एवं मूल्यांकन के रूप में परिभाषित करते हैं।

 
वस्तुतः जब हम विभिन्‍न समाजों का अध्ययन करते हैं तो यह परिलक्षित होता है कि भिन्‍न-भिन्‍न समाजों की लोक पंरपराएं एवं रीति-रिवाज भिन्न-भिन्न होते हैं तथा किसी समाज विशेष की परंपराएं भी समय के अनुरूप बदलती रहती हैं। अनेक दार्शनिकों ने इस विषय को समझने का प्रयास किया है कि किसी समाज की लोक परंपराएं या रीति-रिवाज वास्तव में कैसे निर्मित होते हैं। इस संदर्भ में नीति-शास्त्र का संबंध इतिहास, संस्कृति एवं राजनीति विज्ञान से भी जुड़ जाता है। यद्यपि नीति-शास्त्र का मुख्य विषय मानव-व्यवहार है। मानव-व्यवहार को निर्धारित करने के मुख्य तत्व हैं-किसी कार्य को करने का कारण, उद्देश्य, लक्ष्य तथा उपस्थित विकल्पों में से चयन।

नीतिशास्त्र परिचय


मनुष्य के व्यवहार का अध्ययन अनेक शास्त्रों में अनेक दृष्टियों से किया जाता है। मानवव्यवहार, प्रकृति के व्यापारों की भांति, कार्य-कारण-शृंखला के रूप में होता है और उसका कारणमूलक अध्ययन एवं व्याख्या की जा सकती है। मनोविज्ञान यही करता है। किंतु प्राकृतिक व्यापारों को हम अच्छा या बुरा कहकर विशेषित नहीं करते। रास्ते में अचानक वर्षा आ जाने से भीगने पर हम बादलों को कुवाच्य नहीं कहने लगते। इसके विपरीत साथी मनुष्यों के कर्मों पर हम बराबर भले-बुरे का निर्णय देते हैं। इस प्रकार निर्णय देने की सार्वभौम मानवीय प्रवृत्ति ही आचारदर्शन की जननी है। आचारशास्त्र में हम व्यवस्थित रूप से चिंतन करते हुए यह जानने का प्रयत्न करते हैं कि हमारे अच्छाई-बुराई के निर्णयों का बुद्धिग्राह्य आधार क्या है। कहा जाता है, आचारशास्त्र नियामक अथवा आदर्शान्वेषी विज्ञान है, जबकि मनोविज्ञान याथार्थान्वेषी शास्त्र है। निश्चय ही शास्त्रों के इस वर्गीकरण में कुछ तथ्य है, पर वह भ्रामक भी हो सकता है। उक्त वर्गीकरण यह धारणा उत्पन्न कर सकता है कि आचारदर्शन का काम नैतिक व्यवहार के नियमों का अन्वेषण तथा उद्घाटन नहीं है, अपितु कृत्रिम ढंग से वैसे नियमों को मानव समाज पर लाद देना है। किंतु यह धारणा गलत है। नीतिशास्त्र जिन नैतिक नियमों की खोज करता है वे स्वयं मनुष्य की मूल चेतना में निहित हैं। अवश्य ही यह चेतना विभिन्न समाजों तथा युगों में विभिन्न रूप धारण करती दिखाई देती है। इस अनेकरूपता का प्रधान कारण मानव प्रकृति की जटिलता तथा मानवीय श्रेय की विविधरूपता है। विभिन्न देशकालों के विचारक अपने समाजों के प्रचलित विधिनिषेधों में निहित नैतिक पैमानों का ही अन्वेषण करते हैं। हमारे अपने युग में ही, अनेक नई पुरानी संस्कृतियों के सम्मिलन के कारण, विचारकों के लिए यह संभव हो सकता है कि वे अनगिनत रूढ़ियों तथा सापेक्ष्य मान्यताओं से ऊपर उठकर वस्तुत: सार्वभौम नैतिक सिद्धांतों के उद्घाटन की ओर अग्रसर हों।

नीतिशास्त्र का विषय क्षेत्र - ऐच्छिक कार्य एवं आदतें (Subject area of ​​ethics -voluntary functions and the habits)


हम प्रायः मनुष्य के कार्यों का मूल्यांकन करते हुए कहते हैं कि उसने यह अच्छा या बुरा कार्य किया। इस मूल्यांकन में एक पूर्वापेक्षा निहित है, हम यहाँ स्वीकार किए रहते हैं कि मनुष्य विशेष ने जो भी कार्य किया वह उसे करने के लिए स्वतंत्र था। अर्थात्‌ उसका कार्य एक स्वतंत्र इच्छा का निर्णय है। वह किसी भी बाहय या आन्तरिक दबाव से मुक्त रहते हुए अपने कार्य का चयन करता है, अर्थात्‌ स्वतंत्र इच्छा नैतिकता की एक अनिवार्य पूर्व मान्यता है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि नीतिशास्त्र मनुष्यों के ऐच्छिक कार्यों का अध्ययन करता है। यह किसी भी ऐसे कार्य का अध्यन नहीं करता जो बाहय या आन्तरिक दबाव में किया गया हो।

 

क्‍या नीतिशास्त्र के विषय क्षेत्र में मनुष्य की आदतों का भी मूल्यांकन किया जाना चाहिए? हां। नीतिशास्त्र मनुष्य की आदतों के लिए भी उसे उत्तरदाई मानता है।क्योंकि किसी भी आदत के निर्मित होने से पूर्व मनुष्य उस कार्य का बार-बार निर्णय एवं पुनरावृत्ति करता है, इसलिए आदत भी मनुष्य के ऐच्छिक कार्य का हिस्सा है।

 

मनुष्य के ऐच्छिक कार्यों एवं आदतों से ही उसके चरित्र का निर्माण होता है।नीतिशास्त्र मनुष्य के चरित्र का अध्यन है। चरित्र मनुष्य की उस स्थाई मनोवृत्ति कानाम है जो बार-बार उसके ऐच्छिक निर्णयों से निर्धारित होती है तथा जो उसके बाहय क्रियाकलापों में अभिव्यक्त होती है। अर्थात्‌ यह स्पष्ट है कि मनुष्य का चरित्र उसके सतत ऐच्छिक निर्णयों का ही परिणाम है।

 

किसी भी ऐच्छिक निर्णय में दो अनिवार्य तत्व विद्यमान रहते हैं-एक उस निर्णय के मूल में निहित भावना तथा दूसरा उसका लक्ष्य। प्रायः किसी भी कार्य के दो पक्ष होते हैं-कारण एवं लक्ष्य। यहाँ किसी भी कार्य के अनेक कारण हो सकते हैं, लेकिन मूल प्रश्न उन उपस्थित कारणों में से चयन का है जिसका निर्धारण मनुष्य अपनी अभिवृत्ति से करता है। कारण की ही भांति किसी कार्य के लक्ष्य अनेक हो सकते हैं लेकिन उन उपस्थित लक्ष्यों में से किसी लक्ष्य विशेष का चयन मनुष्य की अभिवृत्ति से ही निर्धारित होता है। अर्थात्‌ अभिवृत्ति ही वह मूल तत्व है, जो मनुष्य के चरित्र का निर्माण करती है। मनुष्य की अभिवृत्ति किसी भी एक कार्य के चयन में भिन्‍न-भिन्‍न हो सकती है। मनुष्य की अभिवृत्ति का निर्माण अनेक तत्वों पर निर्भर करता है। उसकी शिक्षा-दीक्षा, समाजीकरण, आनुवंशिकी आदि अनेक तत्वों पर अभिवृत्ति निर्भर करती है।

नीतिशास्त्र

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नीतिशास्त्र (Nītiśastra) (अंग्रेज़ी: ethics) जिसे व्यवहारदर्शन, नीतिदर्शन, नीतिविज्ञान और आचारशास्त्र भी कहते हैं, दर्शन की एक शाखा हैं। यद्यपि आचारशास्त्र की परिभाषा तथा क्षेत्र प्रत्येक युग में मतभेद के विषय रहे हैं, फिर भी व्यापक रूप से यह कहा जा सकता है कि आचारशास्त्र में उन सामान्य सिद्धांतों का विवेचन होता है जिनके आधार पर मानवीय क्रियाओं और उद्देश्यों का मूल्याँकन संभव हो सके। अधिकतर लेखक और विचारक इस बात से भी सहमत हैं कि आचारशास्त्र का संबंध मुख्यत: मानंदडों और मूल्यों से है, न कि वस्तुस्थितियों के अध्ययन या खोज से और इन मानदंडों का प्रयोग न केवल व्यक्तिगत जीवन के विश्लेषण में किया जाना चाहिए वरन् सामाजिक जीवन के विश्लेषण में भी। नीतिशास्र मानव को सही निर्णय लेने की क्षमता विकसित करता है।

अच्छा और बुरा, सही और गलतगुण और दोषन्याय और जुर्म जैसी अवधारणाओं को परिभाषित करके, नीतिशास्त्र मानवीय नैतिकता के प्रश्नों को सुलझाने का प्रयास करता हैं। बौद्धिक समीक्षा के क्षेत्र के रूप में, वह नैतिक दर्शनवर्णात्मक नीतिशास्त्र, और मूल्य सिद्धांत के क्षेत्रों से भी संबंधित हैं।

नीतिशास्त्र में अभ्यास के तीन प्रमुख क्षेत्र जिन्हें मान्यता प्राप्त हैं:

  1. अधिनीतिशास्त्र, जिसका संबंध नैतिक प्रस्थापनाओं के सैद्धांतिक अर्थ और संदर्भ से हैं, और कैसे उनके सत्य मूल्य (यदि कोई हो तो) निर्धारित किये जा सकता हैं
  2. मानदण्डक नीतिशास्त्र, जिसका संबंध किसी नैतिक कार्यपथ के निर्धारण के व्यवहारिक तरीकों से हैं
  3. अनुप्रयुक्त नीतिशास्त्र, जिसका संबंध इस बात से हैं कि किसी विशिष्ट स्थिति या क्रिया के किसी अनुक्षेत्र में किसी व्यक्ति को क्या करना चाहिए (या उसे क्या करने की अनुमति हैं)।

इसमे वकीलो ओर अपने पक्षकार को जो भी सलाह दी जाती है उसी के हिसाब से पक्षकार काम करने को बाधित होता है।


भारतीय नैतिकता की विशेषता

भारतीय दर्शनशास्त्र को मोटे तौर पर रूढ़िवादी (अस्तिका) और हेटेरोडॉक्स (नास्तिका) में वर्गीकृत किया गया है। छह प्रमुख दार्शनिक प्रणालियाँ। मीमांसा, वेदांत, सांख्य, योग, न्याय और वैशेषिका भारतीय दर्शन के रूढ़िवादी स्कूल हैं। ये स्कूल वेदों के अधिकार को स्वीकार करते हैं। इसलिए उन्हें रूढ़िवादी या अस्तिका स्कूल कहा जाता है। तीन मुख्य दार्शनिक प्रणालियाँ अर्थात। चार्वाक, बौद्ध और जैन भारतीय दर्शन के विषम मत हैं। ये स्कूल वेदों के अधिकार को स्वीकार नहीं करते हैं। इसलिए उन्हें हेटेरोडॉक्स या नास्तिक स्कूल कहा जाता है। सभी भारतीय विचारधारा की प्रणालियाँ चाहे रूढ़िवादी हों या विषमलैंगिक, कुछ सामान्य विशेषताएं साझा करती हैं। भारतीय नैतिकता की विशेषताओं को निम्नानुसार बताया जा सकता है: -

  • भारतीय नैतिकता सभ्यता के इतिहास में सबसे पुराना नैतिक दर्शन है। रूढ़िवादी और हेटेरोडॉक्स स्कूलों के कालक्रम का पता लगाना मुश्किल है (भगवान बुद्ध को छोड़कर यानी 487 ईसा पूर्व)। भारतीय नैतिकता की दूरदर्शिता इसे अनुयायियों के व्यावहारिक जीवन में अच्छी तरह से स्थापित करने के लिए जिम्मेदार है। भारतीय दर्शन का हर स्कूल नैतिक आदर्शों के धीरज की पुष्टि करता है जो आज भी अडिग हैं।

  • भारतीय विचारक इस संसार में पूर्णता का जीवन प्राप्त करने के कुछ व्यावहारिक उपाय सुझाते हैं। आचरण के नियमों का व्यावहारिक रूप से योग, जैन और बौद्ध शिष्यों द्वारा एक हजार वर्षों से पालन किया जाता रहा है। भारतीय नैतिक दर्शन का उद्देश्य न केवल नैतिक आदर्शों पर चर्चा करना है बल्कि नैतिक आदर्शों की ओर ले जाने वाले मार्ग पर चलना भी है।

  • भारतीय नैतिकता का एक मजबूत और गहरा आध्यात्मिक आधार है। दर्शन का प्रत्येक स्कूल आध्यात्मिक आदर्शों की ओर इशारा करता है जिन्हें वास्तव में अनुभव किया जाना है। सिद्धांत और व्यवहार का एक संश्लेषण है, बौद्धिक समझ और परम वास्तविकता (कैवल्य, निर्वाण, आदि) का प्रत्यक्ष अनुभव है। भारतीय नैतिकता में, बौद्धिकता और नैतिकता दो पंख हैं जो आत्मा को आध्यात्मिक उड़ान में मदद करते हैं।

  • भारतीय नैतिकता निरपेक्ष और अध्यात्मवादी है। इसका उद्देश्य सुख और दुख को पार करके सर्वोच्च वास्तविकता की प्राप्ति करना है; यहां तक ​​कि सही और गलत और अच्छाई और बुराई भी। आध्यात्मिक अनुशासन से ही आदर्शों की प्राप्ति होती है।

  • भारतीय नैतिकता मानवतावादी है। यह एक व्यक्ति के आंतरिक और बाहरी जीवन के बीच संतुलन चाहता है; व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन। नैतिक कानून या आचार संहिता इस तरह से निर्धारित की जाती है कि व्यक्तिगत प्रगति और सामाजिक कल्याण से सामंजस्यपूर्ण जीवन व्यतीत हो सके। नैतिकता का लक्ष्य मानवता की भलाई है।

  • भारतीय नैतिक विचारक सभी जीवित प्राणियों के लिए अहिंसा, प्रेम, करुणा और सद्भावना का उपदेश देते हैं। यह इंसानों तक ही सीमित नहीं है। इसमें हर जीवित प्राणी, पौधे, पक्षी और जानवर, जीवन का हर दृश्य और अदृश्य रूप शामिल है।

  • भारतीय विचारक कर्म के नियम में विश्वास करते हैं। कर्म के नियम का अर्थ है कि हमारे सभी कार्य अच्छे या बुरे व्यक्ति के जीवन में उनके उचित परिणाम उत्पन्न करते हैं, जो उसके फल की इच्छा के साथ कार्य करता है। यह सामान्य नैतिक कानून है जो सभी व्यक्तियों के जीवन को नियंत्रित करता है। कर्म का नियम एक क्रिया द्वारा उत्पन्न बल है जिसमें फल देने की शक्ति होती है। यह नैतिक मूल्यों के संरक्षण का नियम है। चार्वाक को छोड़कर, सभी भारतीय स्कूल कर्म के नियम को स्वीकार करते हैं।

नैतिक विकास को प्रभावित करने वाले कारक

नैतिकता का सामान्य अर्थ सज्जनता या चरित्रनिष्ठा समझा जाए यह कहा गया है कि हमें दूसरों के साथ वह व्यवहार करना चाहिए जो दूसरों से अपने लिए चाहते हैं। सूत्र रूप में मानवीय गरिमा के अनुरूप आचरण को नैतिकता कहा जाता है आहार, व्यवहार, उपार्जन, व्यवसाय, परिवार, समाज, शासन आदि क्षेत्रों में नैतिकता का प्रयोग भिन्न-भिन्न प्रकार से होता है। किंतु मूल तथ्य एक ही रहता है।

नैतिक विकास को प्रभावित करने वाले कारक

नैतिक विकास को प्रभावित करने वाले विभिन्न तत्वों का निम्न प्रकार से अध्ययन किया गया है -

(1) परिवार (Family) - नैतिक विकास में परिवार का वातावरण, अपने से बड़ों का व्यवहार तथा माता-पिता के संस्कारों का बड़ा प्रभाव पड़ता है। जिस परिवार में माता-पिता में परस्पर सहयोग और प्रेम रहता है वहाँ बालक के चरित्र का विकास सहज रूप में होता है परन्तु, जिस परिवार के सदस्यों के लड़ाई-झगड़े होते रहते हैं वहाँ बालक का चरित्र पूर्णरूपेण विकसित नहीं हो पाता। बड़ों के व्यवहार का बालक मानो दर्पण है यदि माता-पिता चरित्रवान है तो बालक भी सच्चरित्र होगा। यदि माता-पिता छल-कपट, ईर्ष्या और झूठ के शिकार हैं तो उनके बालक भी ऐसे ही निकलेंगे।

(2) विद्यालय (School) - नैतिक विकास में विद्यालय का योगदान होता है। विद्यालय में शिक्षक, सहपाठी, वातावरण सभी प्रभावित करते हैं। इसके अलावा पाठ्यक्रम व अनुशासन भी उसके नैतिक मूल्यों के विकास पर महत्वपूर्ण ढंग से प्रभाव डालते हैं। वातावरण शुद्ध, संतुलित और सही होता है वहाँ विद्यार्थियों का नैतिक विकास उत्तम तरीके से होता है।

(3) साथी समूह (Partner Group) - जब साथी समूह बन जाता है तो वह अपने इन्हीं साथी समूह से अनेक प्रकार के नैतिक मूल्यों को सीखता है। यदि उसके साथी उच्च नैतिक गुणों वाले होते हैं तो वह उत्तम नैतिक गुणों को सीखता है।
(4) धर्म (Religion) - धर्म भी नैतिक गुणों को प्रभावित करता है जितना अधिक स्वस्थ तथा धार्मिक वातावरण में पला होगा वह उतना ही कम अनैतिक व दुराचारी होता है माता पिता के धर्म में विश्वास रखने या न रखने से ही बालक धार्मिक या अधार्मिक बनता है।

(5) साहित्य (Literature) - चारित्रिक विकास में साहित्य बड़ा उपयोगी सिद्ध हो सकता है। अच्छी कहानियाँ विद्यार्थियों में उदारता दया, त्याग, परोपकार तथा देशभक्ति की भावना भर सकती है। वहीं बुरी कहानियों के माध्यम से स्वाथ्र्ाी, कायर तथा डरपोक भी बनाया जा सकता है कभी भी बालकों व किशोरों को ऐसी पुस्तकें व पत्रिकायें नहीं देनी चाहिए जिनमें यौन भावनाओं को उभारने का प्रयास किया गया हो।

(6) इतिहास (History) - चरित्र गठन में इतिहास के अध्ययन का बड़ा महत्व है। यह करना चाहिए कि वे भारतीय इतिहास के प्रमुख वीर पुरुषों की गाथाएं स्मरण रखें और समय-समय पर बालकों को सुनाया करें। क्योंकि, हमेशा अपने से बड़ों का अनुकरण करने को तैयार रहता है। इस प्रकार इतिहास की सहायता से वीरता, साहस तथा देश भक्ति के गुणों का विकास भली भाँति किया जा सकता हैं।

(7) बुद्धि (Wisdom) - बुद्धि नैतिक विकास को महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करने वाला कारक है नैतिक एवं अनैतिक आचरणों, सत्य व असत्य निर्णयों एवं अच्छी व बुरी भावनाओं के अंतर को अपनी बौद्धिक क्षमता के आधार पर ही समझ पाता है। वेलेन्टाइन और बर्ट ने निम्न बुद्धि को बाल अपराध का एक कारण माना है क्योंकि, निम्न बुद्धि वाले सही और गलत में फर्क नहीं कर सकते।

(8) आयु (Age) -आयु में वृद्धि होने के साथ-साथ नैतिक मूल्यों एवं व्यवहार का विकास होता है, वह सत्य एवं असत्य के अंतर को समझने लगता है इसके अलावा ईमानदारी, सत्यवादिता, भक्ति आदि गुणों का विकास भी आयु में वृद्धि के साथ होता है।

(9) यौन का प्रभाव (Effect of sexual) - यौन कारक भी नैतिक मूल्यों के विकास पर प्रभाव डालते हैं। लड़के व लड़कियों के चरित्र व नैतिक गुणों में पर्याप्त भिन्नता दिखाई देती है। लड़के व लड़कियों में ग्रंथि संस्थान भिन्न प्रकार का होता है।

बालक के नैतिक विकास को प्रभावित करने वाले महत्त्वपूर्ण कारकों या तत्वों की विवेचना कीजिए?

बालक के नैतिक-विकास को प्रभावित करने वाले महत्त्वपूर्ण कारक

बालक के नैतिक-विकास को प्रभावित करने वाले महत्त्वपूर्ण कारक- बालक का नैतिक-विकास किसी एक कारण से नहीं, अपितु अनेक कारणों से प्रभावित होता है। ये कुछ प्रमुख कारण हैं, जिनसे बालक का नैतिक व्यवहार प्रभावित होता है-

बालक के नैतिक-विकास को प्रभावित करने वाले महत्त्वपूर्ण कारक

बालक के नैतिक-विकास को प्रभावित करने वाले महत्त्वपूर्ण कारक

1. लिंग अथवा सैक्स

यौन अथवा सैक्स का नैतिक व्यवहार से गहरा संबंध है। हमारी संस्कृति में लड़के या लड़कियों के व्यवहार में भिन्न प्रतिमान पाये जाते हैं। एक निश्चित अवस्था आने पर यदि दोनों में से कोई भी उन प्रतिमानों को तोड़ता है, तो वह दोषी तथा अनैतिक माना जाता है।

इसके अतिरिक्त लड़के एवं लड़कियों के नैतिक-गुणों में भी पर्याप्त भिन्नता दिखाई देती है। लड़के व लड़कियों की शारीरिक संरचना एवं ग्रंथियों में अंतर होने के कारण उनमें भिन्न-भिन्न प्रकार का नैतिक विकास होता है। लड़कों की अपेक्षा लड़कियों में प्रत्येक आयु स्तर पर दुराचार अधिक मात्रा में व अधिक आवृत्ति में पाया जाता है। वयः संधि अवस्था और किशोरावस्था में लड़कों की अपेक्षा लड़कियों में नैतिक विकास अपेक्षाकृत तीव्र गति से होता है

2. आयु

आयु बढ़ने के साथ-साथ जैसे-जैसे बालक में बौद्धिक प्रखरता, संवेगात्मक-संतुलन तथा सामाजिक समायोजन की क्षमता बढ़ती जाती है। वैसे-वैसे उसमें उचित-अनुचित तथा अच्छे-बुरे का ज्ञान भी बढ़ता जाता है। बालक में केवल आयु-वृद्धि के साथ ही नैतिक गुणों का विकास होता है ऐसा नहीं कहा जा सकता, बल्कि बालक की आयु बढ़ने के साथ-साथ वातावरण के विभिन्न तत्त्व या कारक व्यापक रूप से उनके नैतिक-व्यवहार को प्रभावित करते हैं।

साधारणतः यह माना जाता है कि छोटे बच्चों की अपेक्षा किशोर कम झूठ बोलते हैं व दूसरों को धोखा देना पसंद नहीं करते हैं, क्योंकि उनमें उचित-अनुचित, ईमानदारी, बेईमानी, सत्य-असत्य में अंतर करने की क्षमता विकसित हो जाती है।

3. बुद्धि

नैतिक व्यवहार तथा बुद्धि का पारस्परिक संबंध है। हाटशोन तथा में ने अपने एक अध्ययन से परिणाम निकाला कि बुद्धि तथा नैतिकता का सह-संबंध 0.50 है। उन्होंने यह भी पाया कि बुद्धिमान बालक सही / गलत का निर्णय शीघ्र लेते हैं।

यह देखा गया है कि साधारणतः तीव्र बुद्धि वाले बालकों में परिस्थिति को समझने की तथा उसके अनुकूल उचित निर्णय लेने की अधिक क्षमता होती है। वह नैतिक मूल्यों के महत्त्व को समझाता है। अतः विषम परिस्थितियों उसकी प्रबल नैतिक-भावना उसे अनुचित व्यवहार अपनाने से रोकती है और वह में बौद्धिक क्षमता के आधार पर उचित तरीके से परिस्थितियों का सामना करने में सफल रहता है। विद्यालय में पढ़ने वाले बालकों में भी सामान्यतः यह देखा जाता है कि तीव्र बुद्धि वाले बालक परीक्षा में नकल नहीं करते, जबकि मंदबुद्धि बालक नकल करके सफल होने की चेष्टा करते हैं।

    4. खेल के साथी

    बालक के नैतिक व्यवहार पर खेल के साथियों (Playmates) का भी प्रभाव पड़ता है। खेल में अनेक नियमों का पालन करना आवश्यक होता है, इसलिये खेल के मैदान में बालक खेल के साथियों के बीच जाने-अनजाने में अनेक प्रकार के नैतिक व्यवहारों तथा अवधारणाओं का विकास करता है।

    5. परिवार

    परिवार बालक की प्रथम पाठशाला है। इसमें रहकर वह अनेक प्रकार के व्यवहार सीखता है। परिवार के सदस्यों के व्यवहार को बालक आदर्श मानकर चलता है। परिवार के सदस्यों में आपसी संबंध किस प्रकार के हैं, इस पर बालक का नैतिक व्यवहार निर्भर करता है। परिवार की सामाजिक, आर्थिक स्थिति भी इसके लिए उत्तरदायी होती है। परिवार नैतिक-विकास पर निम्न प्रकार से प्रभाव डालता

    (i) बालक परिवार के व्यवहार को आदर्श मानकर तदानुकूल अनुकरण करता है।

    (ii) दण्ड एवं पुरस्कार प्रशंसा तथा प्रताड़ना बालक को नैतिक व्यवहार सिखाते हैं।

    (iii) दण्ड तथा प्रताड़ना द्वारा बालक को अवांछित कार्य करने से रोका जाता है।

    (iv) अच्छे कार्यों को करने की प्रेरणा देकर बालक को नैतिक रूप से विकसित किया जाता है।

    6. विद्यालय

    बालक के नैतिक-विकास पर परिवार के बाद विद्यालय के वातावरण का प्रभाव सबसे अधिक दिखायी पड़ता है। विद्यालय के शिक्षक, सहपाठी, पुस्तकें तथा वातावरण आदि बालक के नैतिक विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं। विद्यालय के पाठ्यक्रम और अनुशासन का भी बालक के नैतिक मूल्यों के विकास पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। यदि विद्यालय की सामान्य अवस्था व अनुशासन ठीक होता है तो वहाँ पढ़ने वाले बालकों का नैतिक विकास भी उच्च स्तर का होता है। विद्यालय में सबसे अधिक प्रभाव बालक की मित्रमंडली का पड़ता है। उदाहरणार्थ- यदि बालक किसी एक ऐसे समूह का सदस्य है, जिसमें अधिकांशतः बुरे कार्यों में शामिल रहते हैं तो अच्छे वातावरण एवं परिवार के बालक का नैतिक विकास भी प्रभावित होगा।

    एण्डरसन के अनुसार, जब छात्र अध्यापक के मध्य मधुर संबंध होते हैं तो बालक के नैतिक व्यवहार का आदर्श अध्यापक हो जाता है तथा संपूर्ण कक्षा पर इस बात का प्रभाव पड़ता है। विद्यालय में प्रतियोगितात्मक खेल, छात्र-परिषद् तथा अन्य सांस्कृतिक संगठनों के माध्यम से बालक में नैतिक व्यवहार का विकास होता है।

    7. धर्म

    बालक जितने स्वस्थ एवं धार्मिक वातावरण में पला होगा वह उतना ही कम अनैतिक व दुराचारी होगा। धर्म का प्रभाव इस बात पर भी निर्भर करता है कि बालक के माता-पिता धर्म पर कितना विश्वास करते हैं। इसके अतिरिक्त बालक के माता-पिता किस धर्म में आस्था रखते हैं और उसका समूह किस धर्म को मानता है, यह तथ्य भी बालक के विकास को प्रभावित करता है। प्रायः देखा गया है कि माता-पिता के धर्म के नियमों को बालक शीघ्र ग्रहण करता है। परिवार के धार्मिक मूल्यों तथा आस्थाओं का प्रभाव स्थायी होता है।

    8. मनोरंजनात्मक क्रियायें

    खाली समय में बालक अपना समय किस प्रकार व्यतीत करता है, इससे भी उसका नैतिक व्यवहार निर्धारित होता है। बालक के पढ़ने की पुस्तकों, खेल, कहानियों तथा अन्य प्रकार की मनोरंजनात्मक क्रियाओं का प्रभाव उसके नैतिक व्यवहार को किसी-न-किसी प्रकार से प्रभावित करता है। जो बच्चे सिनेमा आदि देखते हैं उनके नैतिक व्यवहार में शीघ्र परिवर्तन दिखलाई देता है।

    इसके अतिरिक्त सिनेमा या चलचित्र जिसने पूर्व किशोरावस्था तथा बड़ी आयु के बच्चों का ध्यान सबसे अधिक अपनी ओर आकर्षित किया है, केवल मनोरंजन का साधन मात्र नहीं वरन् अपराधों की प्रवृत्ति को बढ़ाने वाला माध्यम हो गया है। बालकों एवं किशोरों की मानसिक योग्यता सीमित होने के कारण वह सिनेमा या कहानी के मूल उद्देश्यों को न समझकर उसमें प्रदर्शित मार-धाड़, नारी सौंदर्य, चोरी तथा अपराध जैसी प्रवृत्तियों की ओर अधिक आकृष्ट होते हैं। सिनेमा की तरह टेलीविजन, रेडियो पर भी अनेक प्रकार के मनोरंजक प्रोग्राम तथा नाटक आदि आते हैं। इनका भी बालकों तथा किशोरों के नैतिक व्यवहार पर गहरा प्रभाव पड़ता है।